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गुरुवार, 23 जून 2011

ज़िन्दगी को इक नया-सा मोड़ दे


ज़िन्दगी को इक नया-सा मोड़ दे,
अपनी कश्ती को भंवर में छोड़ दे।

हौसले की इक नई तहरीर लिख,
खौफ़ की सारी हदों को तोड़ दे।

फ़िर किसी इज़हार को स्वीकार कर,
इक नए रिश्ते से रिश्ता जोड़ दे।

जिसका हासिल हार केवल हार है,
क्यों भला जीवन को ऐसी होड़ दे।

सब्र के प्याले की मानिंद जा छलक,
अपनी सोई रूह को झिंझोड़ दे।

ज़िन्दगी के मसअलों का ऐ 'किरण'
दे कोई अब हल मगर बेजोड़ दे।

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