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गुरुवार, 2 जून 2011

विसर्जन

विसर्जन

किन्हीं अनगढ़ हाथों के जोड़े ने
बनाई थी वह मूर्ति,
जिसे कल रात प्रतिष्ठित किया गया
देवी-जागरण के लिये।

(ये धंधा था उनका,
उनका रोजगार,कोई श्रद्धा नहीं)
चार जोड़ी आंखों ने देखी वह मूर्ति
मोहित हुये,
आंखों में भर ली सुगढ़ देहयष्टि,
उपयुक्त रहेगी प्रतिष्ठा के लिये।
अगले मोहल्ले वालों से
अच्छी है लाख गुना।

(जागने लगा था धर्म भी थोड़ा-थोड़ा)
प्रतिष्ठा हुई, श्रंगार हुआ
लोगों ने की वाह-वाह।
क्या छांट कर लाये हैं,
कितनी आकर्षक।

(हम भी लायेंगे ऐसी ही अगले साल)
रात भर बजता रहा झांझ,
ताल-मदंग ढोलक मंजीरा।
झूम-झूम कर गाते रहे भक्त,
करते रहे गुणगान मां का,
नई-नई
भक्ति श्रद्धा और सम्मान के साथ
उसके वे नये-नये बेटे।

(बढता रहा कुनबा मूर्ति का धीरे-धीरे)
सवेरा हुआ, जागरण खत्म
सबको जाना है अपनी-अपनी राह
अपने-अपने आकाश में।
धूम-धाम से नाचते-गाते,
अबीर -गुलाल उड़ते,
उसके वे नये-नये बेटे
ले जा रहे हैं उसे
उसकी अंतिम यात्रा पर।

(एक अंतिम कर्तव्य बचा है अभी तो )
कोई शोक नहीं,
सिर्फ संतोष,
निपट गया सब कुछ
कितनी शान शौकत के साथ।
दिखा दिया न नीचा,
परले मुहल्ले वालों को।

लौट रहे हैं लोग,
सीना फुलाये ,
उछाह से भरे,
कितना शानदार किया ‘सब कुछ’।

‘बोलो माता रानी की जै’
इसके बाद एक और धक्का,
और समा गई मूर्ति,
अथाह जल राशि में
आखिरी वक्त अकेले
तिल-तिल कर गलने को
तब तक जब तक

उसकी सत्ता का एक-एक अणु
विलीन नहीं हो जाता।
खत्म नहीं हो जाता,
उसका अस्तित्व।
देवी मां भी तो थी
अंतत........

मूल शक्ति और सृजन कर्ता का भ्रम पाले
एक स्त्री सत्ता बस।
रचनाकार: 

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