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बुधवार, 2 जनवरी 2013

ये कुहरा और शर्दी


ये कुहरा और शर्दी
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ये कुहरा और शर्दी,
मुझे, याद दिलाती है,
उस शर्दी के मौसम की,
कुहरे की चादर की,
स्म्रति की गागर की,
हमारे प्रेम सम्बन्धों की,
सम्बन्धों के तपन की,
तुम्हारे, उस काले,
ऊनी शाल की,
गर्म आगोश की,
++++++++++
जब, हम बैठते थे, छत पर,
देखते थे, नीचे
तो, घने कुहरे में,
ऐसा, लगता था,
मानो, हम किसी,
शटल यान में हो,
एकान्त की तलाश में हो,
दूर जलती लाईटे,
छोटे ग्रह हो,
हम तन्हा हो,
कुहरे का बना,
बंद कमरा हो,
धरा से दूर हो,
सांसे खमोश हो,
प्यार का जहाँ,
बसाने चले हो,
किस्मत अपनी,
आजमाने चले हो,
+++++++++++
जब कुहरे का उठा फायदा,
छुप-छुप कर मिला करते थे,
प्यार की बाते किया करते थे,
कालेज मिस कर,
जलाकर लकडियों का अलाव,
मजे,
पिकनिक पर किया करते थे,
हमारे पास घर देर से पहुंचने के,
कभी एक्स्ट्रा क्लास, तो कभी,
घना कुहरा, बहाने हुआ करते थे,
जब मैं, मैं नही, तुम, तुम नही,
हम हुआ, करते थे !
साथ जीने , साथ मरने की,
कसमे लिया करते थे !
   .....यशपाल सिंह “एडवोकेट” 

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

दिन में सोने वालो का बस हाल न पूछो,





दिन में सोने वालो का बस हाल न पूछो!
अपनी इस आदत के कारण कितना करते ,
ये नुकसान न पूछो !

यदि,
होते है, ये दुकानदार 
तो, ये सोते रह जाते
और सामने से ,
इन्हें सोता देख,
गूजर  जाता है, 
ग्राहक! जिससे 
प्रभावित होता 
इनका कारोबार,
चोपट हो जाता कैसे ,
इनका, तुम 
व्यापार,
न पूछो !
दिन में सोने वालो का बस हाल न पूछो!
अपनी इस आदत के कारण कितना करते ,
ये नुकसान न पूछो !

यदि,
होते है, ये अध्यापक,
तो खचा- खच भरी ,
रहती है, इनकी क्लास 
ये सो जाते है, कक्षा में !
सिर,  कुर्सी  पर रख कर,
छात्राए , 
करती  रहती मेकप,
छात्र मचाते हा-होल्ला ,
 करते है ,आराम 
ये उठते , हडबडा कर,
कितने होते ,
परेशान,
न,पूछो !

दिन में सोने वालो का बस हाल न पूछो!
अपनी इस आदत के कारण कितना करते ,
ये नुकसान न पूछो !
यदि ,
होते है ये , आशिक 
तो दिन में सो जाते
घर के किसी, कोने में ,
और सपने  में,
पहुच जाते है,
प्रेमिका के पास,
और सोये रहते ,
उसके आगोश में !
इतने में ,
पतनी की सुनकर ,
फटकर ,
ये आ जाते होस में ,
झट से ये जाते है जाग 
इनके, सुहाने सपनों कितना,
होता उत्पन्न,
व्याधान,
न पूछो!
दिन में सोने वालो का बस हाल न पूछो!
अपनी इस आदत के कारण कितना करते ,
ये नुकसान न पूछो !

यदि,
होते है ,ये इंटरनेट के कीड़े,
तो दिन में घंटो सोकर ,
रात में बैठे, रहते नेट पर,
पतनी से कर ,काम का 
बहाना, बाते करते है ,
लडकियों से, चैटिंग पर  
पकड़े जाने पर, पतनी के 
घर में कितना होता ,
घमाशान,
न पूछो ! 

दिन में सोने वालो का बस हाल न पूछो!
अपनी इस आदत के कारण कितना करते ,
ये नुकसान न पूछो !

......आपका यशपाल सिंह 

बुधवार, 24 अगस्त 2011

मुझे हक नही ,


मुझे  हक नही ,
कि मैं आज भी,
 आपको
अपना कहू ,
अब वो सम्मा
बुझ चुकी, 
परवाना भी जल  गया  !
शुआत हो चुकी,
पतझड़ की,
फूल कहाठरते ,
जब  कोई, 
पत्ते ही नही  रहा !

मुझे  हक नही ,
कि, मैं आज भी,
 आपको
अपना कहू ,

सूख 
गया  वो  बरगद ,जिसके नीचे 
हम मिला करते थे हम 
तन्हाई में अक्सर ,
लकड़ी 
ले गयी 
बीनने वाली 
जला दी चुल्ल्हे  
में 
घर ले जाकर!

मुझे  हक नही ,
कि, मैं आज भी,
 आपको
अपना कहू ,

शांत हुआ वो,
प्यार की
लहरों
का 
उफान,
और अब पानी
है शांत
डूब गयी
वो
ख्वाबो की 
किस्ती 
जिस पर हम करते थे मस्ती !
नही रहा   खिव्य्या,
न बचा पतवार,
बस प्यार के ,
अवशेष 
रह गये 
यार !

मुझे  हक नही ,
कि, मैं आज भी,
 आपको
अपना कहू ,

या
आपके दिल  में ,
रहू
आप हो गये किसी और 
के 
और हमारा कोई 
हो गया!

........यशपाल सिंह 


एक बारिश है


कभी बारिश बरसती है तो मुझको याद आता है
वो अक्सर मुझसे कहता था
मोहब्बत एक बारिश है
सभी पर जो बरसती है
मगर फिर भी नही होती ये सब के वास्ते यकसा
किसी के वास्ते राहत , किसी के वास्ते ज़हमत
मई अक्सर सोचता हूँ अब
वो मुझसे ठीक कहता था
मोहब्बत एक बारिश है
सभी पर जो बरसती है
कभी मुझ पर बरसती थी
मगर मेरे लिए बारिश कभी न बन सकी राहत
ये राहत क्यूँ नही बनती
कभी मैं खुद से पूछूँ तो ये दिल देता दुहाई है
कभी कच्चे मकानों को भी बारिश रास आई है ?

सोमवार, 22 अगस्त 2011

औरतें


औरतें –
मनाती हैं उत्सव
दीवाली, होली और छठ का
करती हैं घर भर में रोशनी
और बिखेर देती हैं कई रंगों में रंगी
खुशियों की मुस्कान
फिर, सूर्य देव से करती हैं
कामना पुत्र की लम्बी आयु के लिए।
औरतें –
मुस्कराती हैं
सास के ताने सुनकर
पति की डाँट खाकर
और पड़ोसियों के उलाहनों में भी।

औरतें –
अपनी गोल-गोल
आँखों में छिपा लेती हैं
दर्द के आँसू
हृदय में तारों-सी वेदना
और जिस्म पर पड़े
निशानों की लकीरें।
औरतें 


औरतें –
बना लेती हैं
अपने को गाय-सा
बँध जाने को किसी खूँटे से।

औरतें –
मनाती है उत्सव
मुर्हरम का हर रोज़
खाकर कोड़े
जीवन में अपने।

औरतें –
मनाती हैं उत्सव
रखकर करवाचौथ का व्रत
पति की लम्बी उम्र के लिए
और छटपटाती हैं रात भर
अपनी ही मुक्ति के लिए।

औरतें –
मनाती हैं उत्सव
बेटों के परदेस से
लौट आने पर
और खुद भेज दी जाती हैं
वृद्धाश्रम के किसी कोने में।

रविवार, 21 अगस्त 2011

चींटियाँ

चढ़ रही हैं लगातार
दीवार पर बार-बार
आ रही हैं
जा रहीं हैं
कतारबद्ध चींटियाँ

ढो रही हैं अपने घर का साजो-सामान
एक नए घर में
आशा और उम्मीद के साथ
गाती हुई
ज़िन्दगी का खूबसूरत तराना
इकट्ठी करती हुई
ज़रुरत की छोटी से छोटी
और बड़ी से बड़ी चीज़
बनाती हुई गति और लय को
अपनी जिंदगी का एक खास हिस्सा

अपने घर से
विस्थापित होती हुई चींटियाँ
चल देती हैं नए ठिए कि तलाश में
किसी भी शिकवा शिकायत के बग़ैर

पुराने घर की दीवारों से गले लगकर
रोती हैं चींटियाँ
बहाती नहीं हैं पर आँसू
दिखाती नहीं हैं आक्रोश
प्रकट नहीं करती हैं गुस्सा
जानती हैं फिर भी प्रतिरोध की ताक़त

मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगँध
सूँघती हैं चींटियाँ
सीखा नहीं है उन्होंने
हताश होना
ठहरना कभी
मुश्किल से मुश्किल समय में भी
उखड़ती नहीं है उनकी साँस
मसल दिए जाने के बाद भी
उठ खड़ी होती हैं चींटियाँ
लगे होते हैं उनके पैरों में डायनमो
चलते रहने के लिए
बढ़ने के लिए आगे ही आगे
पढ़ती हुई हर ख़तरे को
जूझती हैं चींटियाँ

जानती हैं वो आज़माना
मुठ्ठियों की ताक़त को एक साथ!!