Text selection Lock by Hindi Blog Tips

शनिवार, 25 जून 2011

नही भूला मैं, बरसात का वह दिन


नही भूला  मैं, बरसात का वह  दिन
वो तुम्हारा, और मेरा,
अकेले  में मिलना
बरवक्त  बरसात  का 
आ जाना,
वो बारिस में भीगना,
वो प्यार भरी  
 प्यारी बाते
तुम्हारा पास आना वो 
तुम्हारा,भीगा बदन 
 गर्म सासों ,
की गर्माहट ,मुझसे 
 गर्म सासों का टकराना  
भीगा बदन का छु जाना 
बिजली का चमकना ,
बादल की की तेज आवाज 
से डर कर मुझ से लिपट जाना 
...................यशपाल सिंह 

दे के मिलने का भरोसा

दे के मिलने का भरोसा उसने
मुझको छोड़ा न कहीं का उसने

दूरियाँ और बढ़ा दी गोया
फ़ासला रख के ज़रा-सा उसने

यों भी तीखा था हुस्न का तेवर
संगे दिल को भी तराशा उसने

मेरे किरदारे वफ़ा को लेकर
सबको दिखलाया तमाशा उसने

हमने दिल रक्खा था लुटा बैठे
हुस्न पाया है भला-सा उसने

खत तो भेजा है मुहब्बत में मगर
अपना भेजा नहीं पता उसने

मेरे आगे वो बोलता ही नहीं
तुझसे क्या क्या कहा बता उसने

शुक्रवार, 24 जून 2011

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ-3


प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ
अब लड़की नहीं रही
न नदी, न पतंग, न आबशार....

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ
अकेली थीं
अपने घरों, शहरों, मुहल्‍लों में
वो और अकेली होती गईं
माँ-पिता-भाई सब जीते
प्‍यार मे डूबी हुई लड़कियों से
लड़कियाँ अकेली थीं,
और वे बहुत सारे....
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ
अब माँएँ हैं ख़ुद
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों की
और डरती हैं
अपनी बेटी के प्‍यार में डूब जाने से
उसके आबशार हो जाने से...

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ-2 /

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों से
सब डरते हैं

डरता है समाज
माँ डरती है,
पिता को नींद नहीं आती रात-भर,
भाई क्रोध से फुँफकारते हैं,
पड़ोसी दाँतों तले उँगली दबाते
रहस्‍य से पर्दा उठाते हैं...

लड़की जो तालाब थी अब तक
ठहरी हुई झील
कैसे हो गई नदी

और उससे भी बढ़कर आबशार
बाँधे नहीं बँधती
बहती ही जाती है
झर-झर-झर-झर।

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ-1


रेशम के दुपट्टे में टाँकती हैं सितारा
देह मल-मलकर नहाती हैं,
करीने से सजाती हैं बाल
आँखों में काजल लगाती हैं
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...

मन-ही-मन मुस्‍कुराती हैं अकेले में
बात-बेबात चहकती
आईने में निहारती अपनी छातियों को
कनखियों से
ख़ुद ही शरमा‍कर नज़रें फिराती हैं
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...

डाकिए का करती हैं इंतज़ार
मन-ही-मन लिखती हैं जवाब
आने वाले ख़त का
पिछले दफ़ा मिले एक चुंबन की स्‍मृति
हीरे की तरह संजोती हैं अपने भीतर
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ
नदी हो जाती हैं
और पतंग भी
कल-कल करती बहती हैं
नाप लेती है सारा आसमान
किसी रस्‍सी से नहीं बंधती
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...

जीवन तो यूँ भी चलता रहता है / मनीषा पांडेय


जानती हूँ एक दिन
तुम यूँ नहीं होगे मेरी जद में
एक दिन तुम पाँव उठा अपनी राह लोगे

जीवन तब भी वैसा ही होगा
जैसा तब हुआ करता था
जब तुम छूते नहीं थे मुझे
वैसे ही उगेगा सूरज
बारिश की बूँदें भिगोएँगी तुम्‍हारे बाल
पेड़ों के झुरमुट में
अचानक खिल उठेगा
कोई बैंगनी फूल
गोधूलि में टिमटिमाएगी दिए की एक लौ
एक प्रिय बाट जोहेगी
अपने प्रेमी के लौटने की

तारे वैसे ही गुनगुनाएंगे विरह के गीत
लोग काम से घर लौटेंगे
मैं वैसी ही होऊँगी तब भी
बस, मेरी पलकों पर तुम्‍हारे होंठों की
छुअन नहीं होगी
चुंबनों से नहीं भीगेंगी मेरी आँखें

एक स्‍मृति बची रह जाएगी
झील के किनारे की एक रात
उन रातों की याद
वरना क्‍या है
जीवन तो फिर भी चलता ही रहता है

ख़ून, नदी और उस पार / मनीषा पांडेय


तुम जो भटकती थी
बदहवास
अपने ही भीतर
दीवारों से टकराकर
बार-बार लहूलुहान होती
अपने ही भीतर क़ैद

सदियों से बंद थे खिड़की-दरवाज़े
तुम्‍हारे भीतर का हरेक रौशनदान
दीवार के हर सुराख़ को
सील कर दिया था
किसने ?

मूर्ख लड़की
अब नहीं
इन्‍हें खोलो
ख़ुद को अपनी ही क़ैद से आज़ाद करो

आज पाँवों में कैसी तो थिरकन है
सूरज उग रहा है नदी के उस पार
जहाँ रहता है तुम्‍हारा प्रेमी

उसे सदियों से था इंतज़ार
तुम्‍हारे आने का
और तुम क़ैद थी
अपनी ही कैद में

अंजान कि झींगुर और जाले से भरे
इस कमरे के बाहर भी है एक संसार
जहाँ हर रोज़ सूरज उगता है,
अस्‍त होता है
जहाँ हवा है, अनंत आकाश
बर्फ़ पर चमकते सूरज के रंग हैं
एक नदी
जिसमें पैर डालकर घंटों बैठा जा सकता है
और नदी के उस पार है प्रेमी

जाओ
उसे तुम्‍हारे नर्म बालों का इंतज़ार है
तुम्‍हारी उँगलियों और होंठों का
जिसे कब से नहीं सँवारा है तुमने
वो तुम्‍हारी देह को
अपनी हथेलियों में भरकर चूमेगा

प्‍यार से उठा लेगा समूचा आसमान
युगों के बंध टूट जाएँगे
नदियाँ प्रवाहित होंगी तुम्‍हारी देह में
झरने बहेंगे
दिशाओं में गूँजेगा सितार

तुम्‍हारे भीतर जो बैठे थे अब तक
जिन्‍होंने खड़ी की दीवारें
सील किए रोशनदान
जो युद्ध लड़ते, साम्राज्‍य खड़े करते रहे
दनदनाते रहे हथौड़े

उनके हथौड़े
उन्‍हीं के मुँह पर पड़ें
रक्‍तरंजित हों उनकी छातियाँ
उसी नदी के तट पर दफनाई जाएँ उनकी लाशें

तुमने तोड़ दी ये कारा
देखो, वो सुदरू तट पर खड़ा प्रेमी
हाथ हिला रहा है....

कितना कुछ होना बचा रह जाता है / मनीषा पांडेय

जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह जाता है
अभी तो कहना था कितना कुछ
कितना तो सुनना था

एक नदी थी
जिसके उस पार जाना था
पहाड़ी पर फिसलना था एक बार
सुदूर जंगल के एकांत में
जोर से पुकारना था तुम्‍हारा नाम
तुम्‍हारी गर्दन में अपनी बाहें फँसाए
तुम्‍हारी पीठ पर लटक जाना था

अचानक कहीं पीछे से आकर
तुम्‍हारी आँखों को मूंद देना था
अपनी उँगलियों से
रात के बीहड़ अन्धेरों में चुपचाप
चट्टान पर समंदर की लहरों को टूटते देखना था

बस में मेरे बगल वाली सीट पर बैठे
मेरी खुली बाँहों का झीना-सा स्‍पर्श
और देह से उठती नमकीन महक का एहसास
जीना था तुम्‍हें

नेरुदा और मारीया को पढ़ना था साथ-साथ
फेलिनी की दुनिया में चुपके से उतरना था
पैडर रोड के शोरगुल के बीच
एक दूसरे की हथेली थामे
बस यूँ ही गुज़र जाना था एक दिन

कुछ कहना नहीं था
बस एक दूसरे को नज़र उठाकर
देख भर लेना था
मेरे तलवों को तुम्‍हें
अपने होंठों से छूना था
उठा लेना था मेरी देह को
अपने हाथों में
एक बार डूबकर चूम लेना था

तिर आना था एक बार
देह में बसी संपूर्ण पृथ्‍वी से
घुल जाना था तुममें एक दिन ऐसे
जैसे नमक पानी में
अपने भीगे बालों के छीटों से
भिगोनी थी तुम्‍हारी अधखुली किताब
इस तरह अंधेरे जंगल में टांकने थे
प्रेम और सुख के सितारे
स्‍मृतियों के मीठे कण

प्‍यार की नदी में तैरना था
जिस मोड़ से अलग होती थीं हमारी राहें
उससे पहले
ठहरना था एक पल को
पूछना था तुम्‍हारे घर का पता
जिस ठिकाने कभी पहुँचे कोई ख़त

जाते हुए देर तक
विदा में हिलाना था अपना हाथ
लेकिन देखो
इस रफ़्तार से गुज़रा सब
कि ऐसा कुछ न हुआ
जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह गया।

एक लड़की


1.

लड़की यूँ ही सारे संसार में
भटकती थी
मानो पैर में चक्‍के जुते हों

यूँ ही दौड़कर चढ़ जाती थी पहाड़
उछलकर आसमान तोड़ लाती
यूँ ही पेड़ की इस डाली से उस डाली
साइकिल उठा पूरे शहर का चक्‍कर लगाती
कुएँ में पैर लटकाकर
नमक के साथ करौंदा खाती

पहाड़ी झरने-सी बहती थी
यूँ ही कभी यहाँ, कभी वहाँ
उसके सीने में था अरब सागर
आँखों में हिमालय

अपनी चोटी की रस्‍सी बना
लड़की यूँ ही एक दिन
चाँद को छू आना चाहती थी
आसमान के सारे सितारे
उसने अपने दुपट्टे में टाँक रखे थे

उसने सोचा था
जाएगी एक दिन दूर पहाड़ी के उस पार
धरती के दूसरे छोर पर
जहाँ छह महीने दिन, छह महीने रात होती है

टॉय-टे्न पर चढ़ेगी
चीड़ के जंगलों में जाएगी
यूँ ही वहाँ गुज़ारेगी एक रात

कौन जानता है
होंठों को एक बार डूबकर चूम लेने वाला
धरती के उस छोर पर ही मिले
या सागौन के जंगलों में

लड़की आखिर लड़की थी
लड़की यूँ ही सबकुछ चाह लेती
सबकुछ कर गुज़रती


लड़की अब यूँ ही कुछ नहीं चाहती
न पहाड़, न नदी, न आसमान
न धरती का दूसरा छोर
न चीड़ के जंगल

लड़की अब यूँ ही चौराहे तक भी नहीं जाती
गर पति के लौटने से पहले
रात की सब्‍ज़ी के लिए
बैंगन न खरीदने हों।

गुरुवार, 23 जून 2011

जन लोकपाल विधेयक


जन लोकपाल विधेयक युक्ति है; भाई 

जिससे खत्म होगी अफसरों
की  तानासयी 
नेताओ  के  गले   में 
पड़ेगा  फंदा 
स्विस बैंक से आएगा 
वापिस धन 
वस्तुओ का होगा 

मंदा 

बंद होगा  भ्रष्टाचार
बढ़ेगी इमानदारी 
देश की होगी तरक्की 
आएगी खुशहाली 
अफसर  व नेताओ पर
दर्ज होगे मुकदमे ,
बिना सरकार की,
परमिशन ,
लोकपाल में होगे ,
विलय,
 बिजिलेस
सी बी आई 
आम लोगो की 
होगी  
भ्रष्टाचार के खिलाफ 
तुरंत सुनवाई 
और धन की भी 
होगी ,तुरंत भरपाई 
यह कविता मेने 
खास 
जी के लिए बनाई 
 इसे पढना 
फसबूक पर मेरे भाई 
……… यशपाल सिंह  

आधी रात को एक आवाज़ /




आधी रात को
एक आवाज़ उगती है
अँधेरे के आवेष्टित अंगों पर
फ़ैलती जाती है
एच०आई०वी० वायरस की तरह
गली-कूचों में
आसमान में
दस्तक दे रही है
बन्द खिड़कियों पर
झाँक रही है
खुले रोशन्दान से
उतर आई है रेंगकर नीचे
बिस्तर पे
सहम के
अलग हो गए हैं प्रेमी युग्म
टटोल रहे हैं अनधिकृत आवाज़ को
उलझ गए हैं एक-दूसरे के अभिलाषित आगोश में फिर
टेलीविजन पर रो रहा है एक अनाथ बच्चा
पोस्टरों पर चिपका है एक सुखी परिवार
कॉण्डम के विज्ञापन के साथ
अख़बारों में लड़ी जा रही है एक लावारिस लड़ाई
मौत ले रही है मदहोश अंगड़ाई
आधी रात को
सहसा जग गई हूँ मैं
तरन्नुम में गा रहा है कोई।

निकला करो इधर से भी होकर कभी कभी /

निकला करो इधर से भी होकर कभी कभी
आया करो हमारे भी घर पर कभी कभी

माना कि रूठ जाना यूँ आदत है आप की
लगते मगर है ये अच्छे ये तेवर कभी कभी

साये की है तमन्ना दरख्तो को भी
प्यासा रहा है खुद भी समन्दर कभी कभी

जिसकी आँखों में सिर्फ पानी है

जिसकी आँखों में सिर्फ पानी है
वो ग़ज़ल आपको सुनानी है

अश्क कैसे गिरा दूँ पलकों से
मेरे महबूब की निशानी है
 
लब पे वो बात ला नहीं पाए
जो कि हर हाल में बतानी है

 कहीं आंसू कहीं तबस्सुम है
कुछ हकीकत है कुछ कहानी है

हमने लिखा नहीं किताबों में
अपना जो भी है मुंह ज़बानी है

कर दी आसान मुश्किलें सारी
मौत भी किस क़दर सुहानी है

आज तो बोल दे 'किरण' सब कुछ
ख़त्म पर फिर तो जिंदगानी है

ज़ुल्फ़ जब खुल के बिखरती है मेरे शाने पर


ज़ुल्फ़ जब खुल के बिखरती है मेरे शाने पर
बिजलियाँ टूट के गिरती हैं इस ज़माने पर

हुस्न ने खाई क़सम है नहीं पिघलने की
इश्क आमादा है इस बर्फ को गलाने पर

ताक में बैठे हैं इन्सान और फ़रिश्ते भी
सबकी नज़रें हैं टिकी रूप के खजाने पर

देखकर मुझको वो आदम से बन गया शायर
जाने क्या-क्या नहीं गुजरी मेरे दीवाने पर

मुन्तजिर हैं ये नज़ारे नज़र मिला लूँ पर
शर्म का बोझ है पलकों के शामियाने पर

लोग समझे कि 'किरण' तू है कोई मयखाना
कोई जाता ही नहीं अब शराबखाने पर

ज़िन्दगी को इक नया-सा मोड़ दे


ज़िन्दगी को इक नया-सा मोड़ दे,
अपनी कश्ती को भंवर में छोड़ दे।

हौसले की इक नई तहरीर लिख,
खौफ़ की सारी हदों को तोड़ दे।

फ़िर किसी इज़हार को स्वीकार कर,
इक नए रिश्ते से रिश्ता जोड़ दे।

जिसका हासिल हार केवल हार है,
क्यों भला जीवन को ऐसी होड़ दे।

सब्र के प्याले की मानिंद जा छलक,
अपनी सोई रूह को झिंझोड़ दे।

ज़िन्दगी के मसअलों का ऐ 'किरण'
दे कोई अब हल मगर बेजोड़ दे।

ग़ैर को ही पर सुनाये तो सही / कविता किरण


ग़ैर को ही पर सुनाए तो सही
शेर मेरे गुनगुनाए तो सही

हाँ, नहीं हमसे, रकीबों से सही
आपने रिश्ते निभाए तो सही

किन ख़ताओं की मिली हमको सज़ा
ये कोई हमको बताए तो सही

आँख बेशक हो गई नम फिर भी हम
ज़ख़्म खाकर मुस्कुराए तो सही

याद आए हर घड़ी अल्लाह हमें
इस क़दर कोई सताए तो सही

ज़िन्दगी के तो नहीं पर मौत के
हम किसी के काम आए तो सही

बुधवार, 22 जून 2011

नए साल की तरह / कविता किरण

गुज़रो न बस क़रीब से ख़याल की तरह
आ जाओ ज़िंदगी में नए साल की तरह

कब तक तने रहोगे यूँ ही पेड़ की तरह
झुक कर गले मिलो कभी तो डाल की तरह

आँसू छलक पड़ें न फिर किसी की बात पर
लग जाओ मेरी आँख से रूमाल की तरह

ग़म ने निभाया जैसे आप भी निभाइए
मत साथ छोड़ जाओ अच्छे हाल की तरह

बैठो भी अब ज़हन में सीधी बात की तरह
उठते हो बार-बार क्यों सवाल की तरह

अचरज करूँ 'किरण' मैं जिसको देख उम्र-भर
हो जाओ ज़िंदगी में उस कमाल की तरह

सोमवार, 20 जून 2011

नाम-रूप का भेद /


नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और
शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने
कहँ ‘ काका ' कवि , दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर

मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में -
ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में
कहँ ‘ काका ' ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे

देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे
कहँ ‘ काका ' कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे

पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी
बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी
कहँ ‘ काका ' कविराय , करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा

चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘ काका ', बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं

बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा - दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘ काका ' कवि , भीमसेन पिद्दी से दिखते
कविवर ‘ दिनकर ’ छायावदी कविता लिखते

तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन - भर वंशी न बजाई
कहँ ‘ काका ' कवि , फूलचंद जी इतने भारी
दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी

खट्टे - खारी - खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन
चिलगोजा से नैन , शांता करतीं दंगा
नल पर नहातीं , गोदावरी , गोमती , गंगा
कहँ ‘ काका ' कवि , लज्जावती दहाड़ रही हैं
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं

अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया
‘ काका ' कोई - कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा

नाम बड़े दर्शन छोटे


नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।
कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।

मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,
श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में-
ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।
कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।

देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,
सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ।
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे,
धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे।
कहं ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे,
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे।

दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल,
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल।
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं,
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भोंक रहे हैं।
‘काका’ छ्ह फिट लंबे छोटूराम बनाए,
नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए।

पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल,
बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी।
कहं ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा,
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा।

दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले,
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले।
कहं ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे,
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे।

चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,
श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध।
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,
इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते,
कहं ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं,
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।

बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल,
सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल।
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी-
निकले बेटा आसाराम निराशावादी।
कहं ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते,
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते।

आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद,
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद।
भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे,
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे।
कहं ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते,
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते।

शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर,
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर।
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली।
कहं ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने।

तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान,
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई।
कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी-
दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी।

खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन,
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन।
चिलगोजा-से नैन, शांता करती दंगा,
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा।
कहं ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है,
दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है।

कलीयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ,
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ।
बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी,
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी।
‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता,
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता।

अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम,
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम।
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खुब मिलाया,
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया।
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा-
पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा।

पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान,
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान।
घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका,
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा।
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं,
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं।

सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ।
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,
प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया।
कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते,
त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते।

रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,
लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।
बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।
कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।

दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय,
गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय।
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण-
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण।
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे,
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे।

रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र,
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र।
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती,
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती,
कहं ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी,
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी।

नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य।
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा,
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा।
कहं ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की,
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की।

शनिवार, 18 जून 2011

वकील करो / शमशेर बहादुर सिंह


1

वकील करो-
अपने हक के लिए लड़ो |
नहीं तो जाओ
मरो |
2

रटो, ऊँचे स्वर में,
बातें ऊँची-ऊँची
न सही दैनिक पत्रों से लेकर,
खादी के उजले मंचों से
दिन के,
तो रेस्तराओं-गोष्ठियों में ही
उन्हें सुनाते पाये जाओ,
बड़े-बड़े नेताओं के नाम
गाते पाए जाओ!
फिर
हो अगर हिम्मत तो
डटो : यानी-के चोर बाजार में
अपनी साख
जमाओ |
खिलाओ हज़ारों, तो
लाखों कमाओ!
और क्या, हाँ, फिर
सट्टे-फ़स्ट क्लास होटेल-
ठेके-या कि एलेक्शन में
पूंजी लगाओ,
और दो... ‘बड़े-बड़ों’ के बीच में बैठकर...
शान से मूँछों पर ताव!
हाँ, कानी उँगली पे अपनी गाँधी-टोपी
नचाए, नचाए, नचाए जाओ!
3

और आर्ट-
क्या है ? औरत
की जवानी के
सौ बहाने : उसके
सौ
‘फ़ॉर्म’:
जो उसपे झूमे, अदा करो
वही पार्ट :
-इसका भी एक बाज़ार है
समझे न ?
ब्यूटी मार्ट |
इसके माने:
नये से नये मरोड़
दो
रंगों को अंगों को
जिस्म-सी
फिसलती
लाइनों को
सीने में घुलते
शेडों को |
इसमें भी, खोजो तो,
गहरे से गहरे
आदिम
नशों का तोड़
है,
समझे इस कला की
फ़िलासफ़ी?
इसी शराब के
दौर चलाओ,
और ‘आगे’
और ‘आगे’
और ‘आगे’
जाओ
-जाओ !
और देश को ले जाओ
(पता नहीं कहाँ !)
समझे, मेरे
अत्याधुनिक भाई ? !

शुक्रवार, 17 जून 2011

इंटरनेट और बरगद / अजय कृष्ण


मध्य रात को
चुपचाप अँधकार में सरसराते हुए
इंटरनेट के एक मैसेज का
एक बरगद रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है
और पूछता है
कि क्या तुम्हारे पास
मेरा परिप्रेक्ष्य है !

साइबेरिया से उड़ता हुआ हंसों का जोड़ा
रेगिस्तान की दहलीज़ पार करने से पहले
कई-कई रात मुझसे संवाद करता है
और पेट के अण्डों को महसूसता हुआ
सूरज के ताप को अन्दाज़ता है
पहाड़ों के जंगल से उतरकर
किंग-कोबरा का एक जोड़ा
मेरे कोटरों में घोंसला बनाता है
बच्चे जन कर, उन्हें बड़ा करता है
और फिर कई दिनों के बाद
बढि़याए सोन को पारकर
एक गाँव में लुप्त हो जाता है

ओ पैमेला एंडरसन की नग्न
नब्बे मेगाबाइट
तुम तो रोज़ मेरे सवालों को अनसुना कर
वित्त-सचिव के लैपटॉप पर
डाउनलोड होने को आतुर रहती हो
तुम्हेो नहीं मालूम
बूढ़ी गंडक का बढ़ा हुआ पानी
मेरी जड़ों तक आते-आते
थककर शान्त पड़ जाता है
और ध्वंस का पाठ भूल कर
मेढकों के बच्चों को सेता है
और उसी में एक
गरीब गरेडि़या का बेटा
बंसी डालकर
माँ और बाबा के साथ
मछली-भात का सपना
खर्राटे मार-मारकर देखता है

आकाशगंगा का सत्य

 अजय कृष्ण

 

करोड़ों-करोड़ ग्रहों और तारों
को प्रकाशमान करती हुई आकाशगंगा
गुज़रती है ख़ामोश, पृथ्वी के सन्नाटे
अंधकार के ऊपर से....
एक झोपड़ी के छिद्री में से
कभी-कभार कोई मनचला प्रकाशकण
छिटकता है आँसुओं से भीगे
मध्यनिद्रा में सोए, एक शिशु कपोल पर

खेतों में पड़ी चौड़ी दरारों से
घूरता है काला अँधकार
और झींगुरों की आवाज़ का पहरा
गहराता जाता है रात-रात

दूर कहीं कोने में
बंसवार के पीछे
पता नहीं कब से
चुपचाप, एक प्रयोगशाला में चल रहे अनुसंधान से
एक तीव्र प्रकाश-पुंज
घूमता है इधर-उधर

ढूँढता शायद, ऊँचे पीपलों
की फुनगियों में पलता हुआ कुछ ....
फड़फड़ा उठता है बीच-बीच में
चौंधियाता हुआ सोया पड़ा उल्लू

नहर के उस पार सीवान पर
एक मटमैले प्रकाश में
चल रहा है गोंड का नाच
और झलकता है उसमें
रंगेदता हुआ राम प्रताप को
लाल साड़ी में एक लौंडा

आती है कभी-कभी
एक अँधेरे आँगन में
खाली बर्तनों के ठनठनाने की आवाज़
खोज रहा है बूढ़ा मूस
अनाज का एक दाना

एक घर की पिछुत्ती में
सुलगाता है बीड़ी
थका-हारा, मायूस एक चोर
कभी-कभार देखता है आकाशगंगा
की ओर बढ़ते हुए उस प्रकाश पुंज को
आखिर क्यों नहीं पड़ती कभी
भूलकर भी उस पर .....।
जैसे जेलों के टावरों से
पड़ती है रोशनी
भागते हुए क़ैदियों पर
क्यों टकराती है बेतरतीब
सुनसान ऊँचे पीपल और बरगदों से, नंगी पहाडि़यों की चोटियों से

अजीब है वक़्त अभी
रोशनियों के कुचक्र में से
फुँफकार रहा है अंधकार का अजगर
.
..............

शब्द कभी

हर शब्द
कहीं न कहीं
कुछ बोलता है
वह कभी आग
कभी काला धुआँ
कभी धुएँ का
अहसास होता है
आओ, इस शब्द को
जलती आग-सा जिएँ
शब्द कभी कभी 
संयोग तो कभी 
वियोग
कभी जीवन तो 
कभी मरण
कभी आत्मा  तो
कभी परमात्मा 
..........यशपाल सिंह 

दुःख


उसे जब पहली बार देखा
लगा जैसे
भोर की धूप का गुनगुना टुकड़ा
कमरे में प्रवेश कर गया है
अंधेरे बंद कमरे का कोना-कोना
उजास से भर गया है

एक बच्चा है
जो किलकारियाँ मारता
मेरी गोद में आ गया है
एकांत में सैकड़ों गुलाब चिटख गए हैं
काँटों से गुँथे हुए गुलाब
एक धुन है जो अंतहीन निविड़ में
दूर तक गहरे उतरती है

मेरे चारों ओर उसने
एक रक्षा-कवच बुन दिया है
अब मैं तमाम हादसों के बीच
सुरक्षित गुज़र सकता हूँ

गुरुवार, 16 जून 2011

ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी


ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ, 
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और, 
मौत की तरह ठंडी होती है। 
खेलती, खिलखिलाती नदी, 
जिसका रूप धारण कर, 
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है। 

ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
किन्तु कोई गौरैया, 
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, 
ना कोई थका-मांदा बटोही, 
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है। 

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा, 
उतना एकाकी होता है, 
हर भार को स्वयं ढोता है, 
चेहरे पर मुस्कानें चिपका, 
मन ही मन रोता है। 

ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना, 
यादों में डूब जाना, 
स्वयं को भूल जाना, 
अस्तित्व को अर्थ, 
जीवन को सुगंध देता है। 

धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं, 
कि पाँव तले दूब ही न जमे, 
कोई काँटा न चुभे, 
कोई कली न खिले। 

न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु! 
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, 
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ, 
इतनी रुखाई कभी मत देना।

बदलती सोच


सोच
टूटे दरख़्त
टूटे घर
टूटे रिश्ते

बड़े होटल
बड़े काम्पलेकस
बड़े देश
बड़ी लालसा
बड़ी रिश्वत
बड़ी शत्रुता
बड़ा काण्ड
बडा स्वार्थ
बड़ा आतंकवाद

छोटी सोच
छोटा दाम
छोटे विचार
फिर भी आज का
आदमी महान
............बदलती सोच के साथ 

हुई शाम उनका ख्याल आ गया


शाम होते ही याद आने लगी उनकी
वे होते तो शाम रंगीन होती
वैसे तो रोज शाम होती है
पर कहाँ वो रंगीन होती है
मन जब ख़ुश होता है
तो शाम रंगीन होती है
दुख के पहाड़ टूटें तो
शाम गमगीन होती है
हो चुहलबाजियाँ तो
तो शाम नमकीन होती है
कुछ भी हो जाए चाहे
हर दोपहर के बाद शाम होती है

वृक्ष और मनुष्य


मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि उसमें वो त्याग और परोपकार
का भाव नहीं होता

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि उसमें दूसरों द्वारा पहुँचाए कष्ट
सहने की ताकत नहीं होती

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि वह अपनी जड़ें खोदने वाले
को कभी शरण नहीं देता

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि वह करता नहीं क्षमा
याद रखता है और बदला लेता है

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि अपना सब कुछ मनुष्यों के
लिए अर्पण करने वाले वृक्ष को भी
मनुष्य नहीं बख़्शता
काट डालता है
क्योंकि वह जलता है वृक्ष की नम्रता से
वृक्ष की कर्त्तव्य-निष्ठा से

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता

माँ की जान कहाँ होती है


माँ की जान कहाँ होती है ?
बच्चों में ।
माँ की आन कहाँ होती है ?
बच्चों से ।
माँ का मान कहाँ होता है ?
बच्चों में ।
माँ की ममता कहाँ होती है ?
बच्चों में ।
माँ की सुबह कहाँ होती है ?
बच्चों से ।
माँ की शाम कहाँ होती है ?
बच्चों में ।
माँ की आस कहाँ होती है ?
बच्चों से ।
माँ की सोच कहाँ होती है ?
बच्चो में ।
माँ का अंत कहाँ होता है ?
बच्चों में ।
माँ की जान कहाँ होती है ?
बच्चों में ।

कहीं खो गया है बचपन


बचपन की तलाश है
कहीं खो गया है बचपन
गलियों में रो रहा है बचपन

होटलों में ढाबों में धो रहा है बरतन
काँच की चूड़ियों में पिरो रहा है शबनम
बीड़ियों में तंबाखू समो रहा है बचपन

गोदियों में बचपन खिला रहा है बचपन
योजनाएँ सारी ध्वस्त है
कहीं भी खिलखिलाता नज़र नहीं
आ रहा है बचपन
.................कहीं खो गया है बचपन


................यशपाल सिंह

सबको तलाश


गुलाब बनने को तैयार हैं सब
बरगद कौन बनना चाहता है

गुंबद बनने को तैयार हैं सब
नींव की ईंट कौन बनना चाहता है
त्याग कौन करना चाहता है
वाह-वाही पाना चाहते हैं सब

पता है सबको जो बन जायेगा बरगद
वह हिल न सकेगा अपनी जगह से

पता है सबको जो बनेगा नींव की ईंट
सब बढ़ जाएँगे उस पर चढ़ के

पता है सब को जो करेगा त्याग
स्वार्थ पूरे करेगे सब उससे

पर बूढ़ा बरगद फिर भी
सबको शीतल छाँव प्रदान करता है
खुदी हुई नींव की ईंट भी

भटकों को सही रास्ता दिखाती है
त्यागियों का त्याग ही ज्ञान रूपी प्रकाश से

जीवन रूपी नर्क को स्वर्ग बना देता है
इसीलिए आज भी है तलाश सबको

बूढ़े बरगद की छाँव की
पक्की नींव की ईंट की

त्याग में ज्ञान के प्रकाश की
ओर प्यार की 

आया बसंत, आया बसंत/यशपाल सिंह


आया बसंत, आया बसंत
रस माधुरी लाया बसंत
आमों में बौर लाया बसंत
कोयल का गान लाया बसंत
आया बसंत आया बसंत

टेसू के फूल लाया बसंत
मन में प्रेम जगाता बसंत
कोंपले फूटने लगी
राग-रंग ले आया बसंत
आया बसंत आया बसंत

नव प्रेम के इज़हार का
मौसम ले आया बसंत
बसंती बयार में
झूमने लगे तन-मन
सोये हुए प्रेम को आके जगाया बसंत
आया बसंत आया बसंत

.....................यशपाल सिंह

इन्तज़ार


पौ फटते ही
उठ जाती हैं स्त्रियाँ
बुहारती हैं झाड़ू
और फिर पानी के
बर्तनों की खनकती
हैं आवाज़ें

पायल की झंकार और
चूड़ियों की खनक से
गूँज जाता है गली-मुहल्ले
का नुक्कड़
जहाँ करती हैं स्त्रियाँ
इंतज़ार कतारबद्ध हो
पाने के आने का।

होती हैं चिंता पति के
ऑफिस जाने की और
बच्चों के लंच बाक्स
तैयार करने की,

देखते ही देखते
हो जाती है दोपहर
अब स्त्री को इंतज़ार
होता है बच्चों के
स्कूल से लौटने का

और फिर धीरे-धीरे
ढल जाती है शाम भी
उसके माथे की बिंदी
अब चमकने लगती है
पति के इंतज़ार में

और फिर होता
उसे पौ फटने का
अगला इंतज़ार!!

अंजना बक्शी

वाह रे भारत महान‍ / पंकज चौधरी


खाने-खेलने की उम्र में
कूडे़ के ढेर पर
पोलीथिन बीनते बच्चे
अपने देश के नहीं
जैसे जापान के बच्चे हैं

और उनकी धँसी हुई आँखें
पांजर में सटा हुआ पेट
और जिस्म पर दिखती हड्डियों की रेखाएँ?

अपने देश की नहीं
बल्कि सोमालिया की हैं
और उनकी अर्जित की हुई संपत्ति?

अपने देश भारत की है
वाह-वाह रे हमारा भारत महान!

मंगलवार, 14 जून 2011


oks ,d dfo gS

lp dgrk gS];s tekuk

tgkW ugh igqWprk]

jfo] ogkW igqWp tkrk gSA dfoA

dfo] vkdze.k dks ns[k]

mxz gks tkrk gS]

fo;ksx esa vkW’kw cgkrk gS]

rUgkbZ] tqnkbZ] yMkbZ]

dHkh lgukbZ] lxkbZ

prqjkbZ] ij viuh]

ys[kuh pykrk gSA

dHkh] fdlh dh vkkW[kks]

dks fgj.kh lh crkrk gS]

rks dHkh vkW[kks dks >hy lk cukrk gSA

dHkh mxrs lwjt ds le;

ij viuh dfork cukrk gSa]]

rks dHkh pUnzek dh pkWnuh esa

fiz; ds feyu o fo;ksx

dh nklrkvks dks viuh]

dforkvks esa lqukrk gSA

lekt dh ihMk]

c< jgh egxkbZ] Hk”Vªªkpkj

mRihMu dks lgu dj

lkfgR; ds tfj;s

lekt ds lkeus ykrk gS]

rks dHkh dfork dk fo”k;]

lekt dh cqjkbZ;ks dks cukrk gSA

dHkh igkMks] >juks o

o ufn;ks dh ‘kkfUr

 ij dfork]

rks dHkh] ‘kgj dh HkhM

iznwl.k] okguks ds ‘kksj

dks viuh dfork dk fo”k;

cukrk gSA

dHkh dhpM esa dey

f[kyus dh ckr djrk gS]

dHkh fdlh ds I;kj esa

engks’k gks tkrk gS]

vkrs] gksB fcEc ds Qy utj mls]

vkSj pky esa fgj.kh fn[kkbZ iMrh gS

rks dHkh dkyh tqYQs ukfxu lh utj vkrh gSA

dfo djrk dMh esgr]

vkSj lkfgR; dks lekt dk niZ.k

cukrk gSA

dHkh djrk QkSft;ks dh

gkslyk vQtkbZA

rks dHkh fo;ksxuh]o

laU;kfl;ks dks

la;e dk ikB i<krk gSA

f’k{kk ij djkrk

/;ku lHkh dk]

dHkh & dHkh vius vki ij brjkrk gS]

oks ,d dfo gS] dfo gS] dfo gS]