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मंगलवार, 14 जून 2011

पेड़ बबूलों के / कुँअर बेचैन

संघर्षों से बतियाने में
उलझा था जब मेरा मन
चला गया था आकर यौवन
मुझको बिना बताए
ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती
किसी नायिका के हाथों से
आँधी में उड़ जाए।

चलते रहे साँस के सँग-सँग
पेड़ बबूलों के
पड़े रहे अपने-अपने घर
गजरे फूलों के
कई गुत्थियाँ सुलझाने में

उलझा था जब मेरा मन
कई सुअवसर मेरे होते-होते हुए पराए
जैसे नई प्रेमिका कोई
प्रेमी के घर आते-आते
गलियों में मुड़ जाए।

झुकी-कमर की लाठी की भी
कमर झुकी ऐसी
अपने घर में घूम रही है
बनकर परदेसी
दुख-दर्दों को समझाने में
उलझा था जब मेरा मन
कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए
जैसे कोई तीर्थयात्री
संगम पर कुछ दिन रहकर भी
लौटे बिना नहाए।

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