विचार
आते तो हैं स्वछंद , उन्मुक्त बाला से.
कलम पर बैठते ही दुल्हन से हो जाते हैं....
शब्दों की ओढ़नी, शिल्प के आभूषण,कथ्य की पाजेब पहन भिन्न -भिन्न स्वरूप धरते हैं कैसे सुन्दर सजते हैं....
कई रंगों, कई रूपों कई विधाओं में बंध कर इठलाते हैं...
खिलंदड़े कागज़ों से लिपटे पुस्तकों में बंद चुप पड़े रहते हैं....
जैसे इंतज़ार हो किसी का....
कोई आए, उनका घूँघट उठाये...
आते तो हैं स्वछंद , उन्मुक्त बाला से.
कलम पर बैठते ही दुल्हन से हो जाते हैं....
शब्दों की ओढ़नी, शिल्प के आभूषण,कथ्य की पाजेब पहन भिन्न -भिन्न स्वरूप धरते हैं कैसे सुन्दर सजते हैं....
कई रंगों, कई रूपों कई विधाओं में बंध कर इठलाते हैं...
खिलंदड़े कागज़ों से लिपटे पुस्तकों में बंद चुप पड़े रहते हैं....
जैसे इंतज़ार हो किसी का....
कोई आए, उनका घूँघट उठाये...
अपेक्षा
पूनी की तरह
गृहस्थी की तक़ली पर
सुती गई..
अपेक्षाओं का सूत
गदरा ही रहा ...
आकाँक्षाओं के
महीन सूत के लिए
ना जाने
कितनी बार और....
मेरी भावनाएँ
तक़ली पर
कती जाती रहेंगी...
मन को अटेरनी बना
इच्छायों को कस दिया...
गृहस्थी का खेस
फिर भी पूरा ना हुआ ....
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