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शुक्रवार, 3 जून 2011

विचार

विचार 
आते तो हैं स्वछंद उन्मुक्त बाला से.
कलम पर बैठते ही दुल्हन से हो जाते हैं....
शब्दों की ओढ़नीशिल्प के आभूषण,कथ्य की पाजेब पहन भिन्न -भिन्न स्वरूप धरते हैं कैसे सुन्दर सजते हैं....
कई रंगोंकई रूपों कई विधाओं में बंध कर इठलाते हैं...
खिलंदड़े कागज़ों से लिपटे पुस्तकों में बंद चुप पड़े रहते हैं....
जैसे इंतज़ार हो किसी का....
कोई आएउनका घूँघट उठाये...
 
अपेक्षा 

पूनी की तरह
गृहस्थी की तक़ली पर
सुती  गई..

अपेक्षाओं का सूत
गदरा ही रहा ...

आकाँक्षाओं के 
महीन सूत के लिए
ना जाने
कितनी बार और....
मेरी भावनाएँ
तक़ली पर
कती जाती रहेंगी...

मन को अटेरनी बना
इच्छायों को कस दिया...

गृहस्थी का खेस
फिर भी पूरा ना हुआ ....

 

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