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रविवार, 29 मई 2011

इन्टरनेट

रेल की सीटी सुन कर नींद में भी मुस्कुरा उठने वाले मार्क्स
न जाने कितने खुश हुए होते
एंगेल्स से चैटिंग कर के
‘न्यूयार्क डेली ट्रीब्यून’ के संपादक को ईमेल पर लेख भेज कर
‘पूंजी’ के बिखरे पन्नों को हार्ड डिस्क में समेट कर
फेसबुक पर प्रथम इंटरनेशनल का ग्रूप बनाकर.

मैं नहीं जानता वह अकेला इंजीनियर था
या इंजीनियरों की कोई टोली थी
जिसने रचा था इन्टरनेट के सॉफ्टवेयर का महाकाव्य
मैंने सुना है कि इन्टरनेट का ईजाद तब हुआ
जब पेंटागन को जरूरत पड़ी थी
अपने कंप्यूटरों को आपस में जोड़ने की .

क्या पेंटागन ने कभी सोचा था?
इन्टरनेट निकल जाएगा
उसकी लौह दीवारों को ध्वस्त कर
फैल जाएगा पूरी दुनिया में
वर्ल्ड वाइड वेब बन कर
और एक दिन बरसेगा उसके ऊपर बम बनकर .

मैं सलाम करता हूं
उस अचेतन क्रांतिकारी को
जिसने रचा इन्टरनेट
मेरा वस चले तो
दुनिया भर के बच्चों की किताबों में
उसकी जीवनी लगा दूं .

मैं सलाम करता हूं
मुनाफाखोर बिल गेट्स को भी
आखिर उसके कंप्यूटरों के बिना
काम नहीं कर सकता था इन्टरनेट.

वसुधैव कुटुम्बकम,
विश्व मानवता की ओर,
दुनिया के मजदूरों एक हो,
सब ही तो खड़े थे स्टॉप पर,
न जाने कब से,
इन्टरनेट का बस पकड़ने के लिए.

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