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रविवार, 29 मई 2011

शायद जीत जाऊं ……शायद हार जाऊं

शायद जीत जाऊं ……शायद हार जाऊं
शायद जीत जाऊं 
शायद हार जाऊं
मन ने ऐसी कौन सी रीत लाऊं 
दुःख के आँचल मे कौन सा मीत लाऊं
मै खुश थी अपने अरमानो के आशियाने मे
बस सोचती और कितने अपने पर फैलाऊं
मुझे दिखते मेरे आसमान के और कैसे करीब जाऊं
शायद जीत जाऊं 
शायद हार जाऊं
मन ने ऐसी कौन सी रीत लाऊं 
मन की उडती धूल को किन बूंदों ने बैठा दिया
अब शायद ही मेरा रास्ता मै तो ढूंढ़ पाऊँ
कुछ टूट कर बिखरता सा मेरी आँखों से बह गया
कुछ दर्द मे सिमटता सा कहीं आह मे रह गया
मेरी कोशिश के पर है अभी ठन्डी बर्फ जैसे 
डर है मुझे की दर्द की तपिश मे कहीं गल के ना रह जाऊं
मुझे दिखते मेरे आसमान के और कैसे करीब जाऊं
अंतर्वेदना मेरे मन की 
अंतर्द्वंद मेरे जेहन की
शायद जीत जाऊं 
शायद हार जाऊं
मन ने ऐसी कौन सी रीत लाऊं 
दुःख के आँचल मे कौन सा मीत लाऊं

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