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गुरुवार, 26 मई 2011

आत्म-कथा -- 'आत्म' की कथा

मैं आत्म हूं। समस्त भूतों (पदार्थों) - जड, जंगम, जीव में अवस्थित, उनका स्वयं, उनका अन्तर; "सर्व भूतेषु आत्माः"। भौतिक विग्यानी मुझे ’एटम’ या ’परमाणु’ कहते हैं-अन्तिम कण, अर्थात प्रत्येक वस्तु का वह लघुतम अंश जिससे वह बनी है। अध्यात्म, मुझे ’आत्म’ कहता है, प्रत्येक भूत में निहित। अतः मैं एटम का भी आत्म हूं। मेरे विना परमाणु भी क्रिया नहीं कर सकता। वह जड है, मैं चेतन; मैं आत्म हूं।
जब न ब्रह्मांड था,न परम व्योम,न वायु,नकाल,न ग्यान,न सत-न असत ; कुछ भी नहीं था। चारों ओर सिर्फ़ अंधकार व्याप्त था; केवल मैं चेतन ही अकेला, स्वयं की शक्ति से, गतिशून्य होकर स्थित था। कहां? क्यों? कैसे? कोई नहीं जानता; क्योंकि मैं ही सत हूं, मैं ही असत हूं, मैं ही सर्वत्र व्याप्त स्वयंभू व परिभू हूं; सब कुछ मुझ में ही व्याप्त है। मैं आत्म हूं।
मैं अपने परम अव्यक्त रूप -असद रूप या नासद रूप में जब आकार रहित होता हूं, ’पर-ब्रह्म’ कहलाता हूं। इस रूप में, मैं -कारणों का कारण, कारण ब्रह्म हूं,जो अगुण,अक्रिय,अकर्मा,अविनाशी, सबसे परे-परात्पर एवं केवल द्रिष्टा -सब द्रष्टियों की द्रष्टि- हूं। मेरे रूप को सिर्फ़ मनीषी ,आत्मानुभूति से ही जान पाते हैं और "वेद" रूप में गान करते हैं। मैं अक्रिय,असद चेतन सत्ता,स्वयंभू,परिभू हूं’; मैं आत्म हूं।
जब श्रष्टि हित मेरा भाव सन्कल्प ’ओ३म’रूप में आदि-नाद बनकर उभरता है तो मैं, अक्रिय-असद सत्ता से; सक्रिय-सत-चेतन सत्ताके रूप में व्यक्त होकर ’सद-ब्रह्म’, परमात्मा,ईश्वर, सगुण-ब्रह्म या हिरण्यगर्भ कहलाता हूं;जिसमें सब कुछ अन्तर्निहित है। मैं आत्म हूं।
हिरण्यगर्भ रूप में, जब मैं स्रष्टि को प्रकट करने की इच्छा करता हूं तो- "एकोहं बहुस्याम" की ईषत इच्छा, पुनः ’ओ३म’ रूप में प्रतिध्वनित होकर, मुझमें अन्तर्निहित अव्यक्त मूल-प्रक्रिति, आदि-ऊर्ज़ा को व्यक्त रूप में अवतरित कर देती है और वह ’माया’ या ’आदि-शक्ति’ के रूप में प्रकट व क्रियाशील होकर, जगत व प्रक्रति की रचना के लिये, ऊर्ज़ा तरंगों, विभिन्न कणों एवं भूतों की रचना करती है; और मैं प्रत्येक कण में उनका ’आत्म’ बनकर प्रवेश कर जाता हूं, जड, जन्गम, जीव, सभी में। मैं आत्म हूं।
जड रूप श्रष्टि में -भौतिक विग्यानी,मुझे केवल ’एटम’ या परमाणु तक ही पहचानते हैं, यद्यपि मैं परमाणु का भी चेतन-आत्म हूं। चेतन-रूप स्रष्टि में-मैं,जीव,जीवात्मा,आत्मा या चेतना के रूप में प्रवेश करता हूं,जिसे जीवन या जीवित-सत्ता कहा जाता है; प्राणधारी व प्राण भी। इस रूप में, मैं-माया के प्रभाव में विभिन्न अच्छे-बुरे सान्सारिक कर्मों में लिप्त होता हूं और जन्म-मरण के असन्ख्य चक्रों में घूमता हूं, सुख-दुख भोगता हूं, जब तक अलिप्त-अकाम्य कर्मों के कारण ’मोक्ष’ अर्थात माया बन्धन से छुटकारा न मिले। मैं आत्म हूं।
मैं जीव, जीवात्मा या प्राणी के रूप मेंजब अपने बहुत से सत्कर्मों का संचय कर लेता हूं तो प्रक्रति की सर्वश्रेष्ठ क्रति--जिसे ज्ञान, मन, बुद्धि व संस्कार उपहार में मिलते हैं--मानव, मेन या आदम, के रूप में जन्म धारण करता हूं। इस रूप में, मैं स्वयं को माया बंधन से मुक्त करके, "मोक्ष" प्राप्त करने का प्रयत्न करता हूं और स्वयं को सत-व्यक्त ब्रह्म, हिरण्यगर्भ में लीन कर देता हूं एवम ’परम-आत्म ’ कहलाता हूं। लय या प्रलय के समय मैं पुनः "अनेक से एक" होने की इच्छा करता हुआ, प्रक्रति व माया लीन हिरण्यगर्भ को स्वयं में लीन करके पुनः अक्रिय, असद, परमसत्ता- "पर-ब्रह्म" बनकर अव्यक्त बनजाता हूं। मैं आत्म हूं।

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