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गुरुवार, 26 मई 2011

बेशर्म लड़की

तितली के पंखों से,
गुलाब की पंखुड़ियों,
मोरपंखी के सूखे पत्तों से
किताब सजाती है,
वह एक लड़की।
पर इसे पढ़ नहीं पायेगी वह।
उसे तो पढ़ना है
घर-आंगन, चूल्हे की राख,
बच्चों का गू-मूत,
पति का पौरुष (अत्याचार),
बताती है मां,
अपने अब तक के अनुभव से।
फिर भी नहीं छोड़ती
किताबों में छिपाना, रंगीन पत्तियां,
मन में उड़़ाना, रंगीन तितलियां,
सपने सजाना,
बेशर्म लड़की।
देखती है सपने
सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार के।
सोती रहती है
बियावान में बने,
अपने सपनों के महल में,
अकेले सदियों तक,
सोती सुन्दरी के सपने के साथ।
तब भी,
जब कराहती है
एक डिब्बा किरासिन
एक माचिस की तीली के डर से।
जली आत्मा, जला तन लेकर,
अपनों को छोड़ कर,
सपनों को तोड़ कर,
सदियों की नींद से
जाग नहीं पाती है,
बेशर्म लड़की।
खड़़ीं हैं चौराहों पर,
जांघों के बीच खुजातीं
बेशर्म आंखें,
बजातीं सीटियां, कसती फब्तियां।
नजरें झुकाकर ,
थोडा सटपटाकर,
स्कूल जाना क्यों,
पढ़ना-पढ़ाना क्यों,
छोड़ नहीं पाती है
बेशर्म लड़की।
आई जो गर्भ में,
खडे़ हो गये कितने सवाल।
क्या है, लड़का या लड़की?
लड़की ?
गर्भ रखना है क्या ?
जन्मने से पहले ही
चिमटियों से खींचकर नोंच ली जाती है,
बोटी-बोटी कर दिया जाता है शरीर।
खुश होती है मां,
अब नाराज नहीं होंगे ‘वे’
खुश होता है ‘बाप’
एक मुसीबत तो टली।
फिर उसी गर्भ में,
हत्यारी दुनियां में,
बार-बार आना क्यों
छोड़ नहीं पाती है
बेशर्म लड़की।

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