आखिरकार विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में “लोक” को ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठानी पड़ी. माननीय अन्ना हजारे जी इसके अगुआ बने और उनको अपार जनसमर्थन भी मिल रहा है. वास्तव में देखा जाए तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त सत्ताधीशों ने इस राष्ट्र के संसाधनों का दोहन अपने लिए किया न की राष्ट्र के लिए, जनता के लिए. विश्व के इस सबसे बड़े “लोकतंत्र” में “लोक” ही सबसे ज्यादा उपेक्षित है, इस सबसे बड़े “गणतंत्र” के “गण” को ही गौण बना दिया गया है. हमारे राजनीतिज्ञों ने भी अंग्रेजों की निति “फूट डालो और राज करो” का अनुशरण करते हुए पूरे राष्ट्र को अलग अलग समुदायों में बाँट दिया. जिससे उनकी स्वार्थसिद्धि आसानी के साथ होती रहे. परिणामस्वरुप इस राष्ट्र के नागरिक अपने अपने स्वार्थों को वरीयता देने लगे और राष्ट्रीय हित गौण होते चले गए. भ्रष्टाचार बढ़ता गया.क्या ये आश्चर्यजनक और शर्मनाक नहीं है की जनता को सरकार के समक्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध क़ानून बनवाने लिए अनशन करना पड़ रहा है और सरकार उस पर भी सोच रही है, विचार कर रही है, समितियां बना रही है इस विषय को खिंच रही तत्परता से कोई कार्यवाही नहीं. यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रीय विषय के सन्दर्भ में भूखा सो रहा है तो ये कहाँ तक उचित है और उस सरकार का नैतिक दायित्व क्या है? यदि किसी सरकार के समक्ष “भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्यवाही करने को लेकर” बात मनवाने के वहां की जनता को भूखा रहना पड़ रहा है तो सरकार को बने रहने का कितना अधिकार है. लेकिन इस गणतंत्र में सब हो रहा है ढिठाई के साथ. बिल्लियाँ स्वयं बैठी हैं दूध की रखवाली के लिए तो दूध कैसे सुरक्षित रहेगा. भ्रष्टाचारी स्वयं के विरुद्ध क़ानून कैसे बनायें.
ऐसा नहीं है की ये भ्रष्टाचार के विरुद्ध पहली बार कोई आवाज़ उठाई गयी है. पूर्व में, जयप्रकाश नारायण ने भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन चलाया था और वो तत्कालीन सत्ताधीशों को परिवर्तित करने में सफल भी रहे, परन्तु क्या भ्रष्टाचार समाप्त हुआ? शायद नहीं क्यों? तो क्या हो जाएगा एक और क़ानून बनाने से?
लोकतंत्र के चार स्तम्भ होते हैं विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और प्रेस. क्या हमारे देश में इन सबने अपने दायित्वों का निर्वाहन ठीक ढंग से किया है,यदि नहीं तो इसकी जवाबदेही किस पर है और यदि हाँ तो इतनी अराजकता कैसे? लोकतंत्र की क्या आवश्यकता है. क्या इस देश में किसी की भी कोई जवाबदेही है? किसी भी स्तर पर किसी भी कर्मचारी सरकारी अथवा गैर सरकारी, व्यवसायी, अथवा नेता और समस्त नागरिक सबको अपने अधिकारों का तो भान है पर किसी को अपने कर्तव्यों ज्ञान है? इन सबकी अपने अपने विभाग अथवा देश के प्रति क्या जवाबदेहि है. यदि कोई नहीं तो भूल जाइए की किसी भी क़ानून से भ्रष्टाचार कम हो जाएगा. कानूनों की तो इस देश में वैसे भी कोई कमी नहीं है. नए पुराने बहुत तरह के क़ानून हैं. पर क्या हुआ उन कानूनों से क्या दहेज़ खत्म हो गया, या आतंकवाद ख़त्म हो गया, जब तक हर व्यक्ति राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को लेकर सजग नहीं होगा और जवाबदेही निश्चित नहीं होगी तब तक किसी भी आन्दोलन का कोई प्रभाव होगा कहना मुश्किल है.
मैं माननीय अन्ना हजारे जी का विरोध नहीं कर रहा हूँ, जबकि मेरा मानना है की जिस भ्रष्टाचार के विरोध में उन्होंने कमर कसी है उस में केवल क़ानून बनाने से कुछ नहीं होगा साथ ही साथ सबकी जवाबदेही भी निश्चित कर दी जाए तो ज्यादा ठीक होगा.
वास्तव में देखा जाए तो इन सब बातों के मूल फिर से वही हमारी शिक्षा पद्धति का दोष…..! अब शिक्षा में नैतिकता की बातों को वरीयता नहीं दी जाती और न ही अपने पूर्वजों महापुरुषों के विषय में जानकारी दी जाती है जिसके कारण लोगों के समक्ष अब कोई आदर्श नहीं हैं जब अपने ही राष्ट्र के महापुरुषों के विषय में पढाये जाने पर भगवाकरण की बात कही जाती हो, अपने ही महापुरूषों के विषय में पढने पर शर्म महसूस की जाती हो तो भला किसी का कोई आदर्श कैसे हो सकता है आदमी सैद्धांतिक कैसे हो सकता है, और गांधीजी ने कहा ही था की “आदर्श रहित मनुष्य पतवार रहित जहाज के समान है” जो कभी भी डगमगा सकता है. और इस सबका एक ही समाधान है शिक्षा पद्धति में सुधार और व्यक्तियों के चरित्र निर्माण को महत्व दिया जाए न की व्यवसायिक शिक्षा को. केवल उच्च चरित्र से ही एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण संभव है अन्यथा एक और क़ानून तो बन जाएगा परन्तु उसकी क्या उपयोगिता रहेगी या उसका दुरपयोग नहीं होगा कहना मुश्किल है. इसलिए चरित्र निर्माण कीजिये व्यक्ति निर्माण कीजिये जिससे किसी को अन्ना हजारे जी की तरह अनशन पर न बैठना पड़े और किसी लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा काला दिन न आये
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